विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
मैं रोज़ मौत के मंजधार से निकलता हूँ
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जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया
बेवफ़ाई करके निकलूँ या वफ़ा कर जाऊँगा
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
तन्हा रहने में भी कोई उज़्र नहीं है
मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव