वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
पहला पहला झूट है उस को यक़ीं आ जाएगा
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मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं
दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने
कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़
अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
दरिया दूर नहीं और प्यासा रह सकता हूँ
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे