अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
पाँव पर पाँव जो रखना तो दबा भी देना
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वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे
इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
है और बात बहुत मेरी बात से आगे
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
भूल बैठा था मगर याद भी ख़ुद मैं ने किया
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी
लम्बी तान के सो जा और
इस तरह भी चला है कभी कारोबार-ए-शौक़