इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
सुस्त-उल-वजूद घर में पड़ा भी हुआ हूँ मैं
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सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
मुस्तरद हो गया जब तेरा क़ुबूला हुआ मैं
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
है कोई इख़्तियार दुनिया पर
नहीं कि दिल में हमेशा ख़ुशी बहुत आई
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का