इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
कभी इस ख़्वाब से मुमकिन है निकलना पड़ जाए
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इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
एक ही बार नहीं है वो दोबारा कम है
अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
चलो इतनी तो आसानी रहेगी