उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
मसरूफ़ था मैं कुछ भी न करने के बावजूद
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दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ
उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं
बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था
बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'