इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
इक प्यास है रुकी हुई झरने के बावजूद
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यूँ तो किस चीज़ की कमी है
लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
न गुमाँ रहने दिया है न यक़ीं रहने दिया
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था
इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता
दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ