दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
मैं तो इस शोर-ए-क़यामत में नहीं रह सकता
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किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा
कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था
यूँ तो किस चीज़ की कमी है
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया
मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ