दर-ए-उमीद से हो कर निकलने लगता हूँ
तो यास रौज़न-ए-ज़िंदाँ से आँख मारती है
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पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए
दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
हमें भी मतलब-ओ-मअ'नी की जुस्तुजू है बहुत
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर
सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट