ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
जो सो गए हैं उन को जगा लेना चाहिए
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कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
जिधर से खोल के बैठे थे दर अंधेरे का
ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को