वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को
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उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक
कुछ भी न उस की ज़ीनत-ओ-ज़ेबाई से हुआ
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ
अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'