अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ
है ये अंजाम उसे रस्ते से हटा देने का
Gulzar
Anwar Masood
Rahat Indori
Wasi Shah
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Jaun Eliya
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1043) Peoples Rate This
अजब कोई ज़ोर-ए-बयाँ हो गया हूँ
कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना
ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
दरिया-ए-तुंद-मौज को सहरा बताइए
मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर