मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
अब के ये मरहला मुझे आसाँ भी चाहिए
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ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात