मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
कितना चालाक था मारा मुझे तन्हा कर के
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हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं
सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था
छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है