मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
वो खो गया तो किसी ने पुकारने न दिया
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वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़
बात ऐसी भी कोई नहीं कि मोहब्बत बहुत ज़ियादा है
जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ
एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
अभी किसी के न मेरे कहे से गुज़रेगा