वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
हर एक लफ़्ज़ हर इक नक़्श की अदा देखूँ
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इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए
क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में 'ज़फ़र'
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
आग का रिश्ता निकल आए कोई पानी के साथ