ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
कभी तो जाएँगे इस दाल-भात से आगे
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मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है
लम्बी तान के सो जा और
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
जो नारवा था इस को रवा करने आया हूँ