यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
लब-ए-दरिया हूँ मैं और वो पस-ए-दरिया खिला है
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कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
तिरे आसमाँ की ज़मीं हो गया हूँ
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
मिलूँ उस से तो मिलने की निशानी माँग लेता हूँ
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली
एक दिन सुब्ह जो उट्ठें तो ये दुनिया ही न हो
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो