इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
कहीं हो न पाया कहीं हो गया हूँ
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इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना
तिरे आसमाँ की ज़मीं हो गया हूँ
ये भी मुमकिन है कि इस कार-गह-ए-दिल में 'ज़फ़र'
हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था