इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात
लेकिन हम को ख़ुश रहने की आदत बहुत ज़ियादा है
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अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का
कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का
देखो तो कुछ ज़ियाँ नहीं खोने के बावजूद
एक ही नक़्श है जितना भी जहाँ रह जाए
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा
इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ
रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें