हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
डूबते को अभी तिनके का सहारा कम है
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Javed Akhtar
Anwar Masood
Rahat Indori
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1014) Peoples Rate This
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
न कोई ज़ख़्म लगा है न कोई दाग़ पड़ा है
करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर
हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
खुल के रो भी सकूँ और हँस भी सकूँ जी भर के
भूल बैठा था मगर याद भी ख़ुद मैं ने किया
मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था
रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर