मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था
पुरानी केंचुली में ही नया होना था मुझ को
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क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था