चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
उभरता डूबता मैं भूक के भँवर में रहा
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ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
रफ़्ता रफ़्ता लग चुके थे हम भी दीवारों के साथ
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं