रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
बेच लेना था ये सौदा ज़रा महँगा कर के
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हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
अभी किसी के न मेरे कहे से गुज़रेगा
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक