हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
सो अपने आप ही इस चाँद को गहनाए रखते हैं
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गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था
इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात
बिजली गिरी है कल किसी उजड़े मकान पर
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
दिन पर सोच सुलगती है या कभी रात के बारे में
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए