फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
सूनी सुलगती सोचती सुनसान सी सड़क
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कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
एक ही बार नहीं है वो दोबारा कम है
यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था
कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है