फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
धान के खेत से इक मौज-ए-हवा आई है
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'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है
छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं
नहीं कि दिल में हमेशा ख़ुशी बहुत आई
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
एक ही नक़्श है जितना भी जहाँ रह जाए
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है