सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
गर हो सके तो इस को क़ज़ा मत किया करो
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लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
अजब कोई ज़ोर-ए-बयाँ हो गया हूँ
कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़
सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा
आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
कैसा है कौन ये तो नज़र आ सके कहीं
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट