पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
और फिर मेरी ज़बाँ पर तिरा ताला लग जाए
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ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत
आँख के एक इशारे से किया गुल उस ने
उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं
अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रही
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
दिल को रहीन-ए-बंद-ए-क़बा मत किया करो
मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया