अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत
सर पर तुली खड़ी है शब-ए-तार किस लिए
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आबा तो 'ज़फ़र' नहीं थे ऐसे
कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का
कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
रह रह के ज़बानी कभी तहरीर से हम ने
दिल का ये दश्त अरसा-ए-महशर लगा मुझे
मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को
साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल