मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
गोया कि तमाम हो गया मैं
एहसास की आग से गुज़र कर
कुछ और भी ख़ाम हो गया मैं
दीवार-ए-हवा पे लिख गया वो
यूँ नक़्श-ए-दवाम हो गया मैं
पत्थर के पाँव धो रहा था
पानी का पयाम हो गया मैं
उड़ता हुआ अक्स देखते ही
फैला हुआ दाम हो गया मैं
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मिरे निशान बहुत हैं जहाँ भी होता हूँ
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे
किसी नई तरहा की रवानी में जा रहा था
ब-ज़ाहिर सेहत अच्छी है जो बीमारी ज़ियादा है
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया