वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
तिरे फ़िराक़ में हम को हँसी बहुत आई
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मिरी फ़ज़ा में है तरतीब-ए-काएनात कुछ और
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
हमें भी मतलब-ओ-मअ'नी की जुस्तुजू है बहुत
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में