तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
ईद अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी
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जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ
इक धूप सी तनी हुई बादल के आर-पार
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
किस नए ख़्वाब में रहता हूँ डुबोया हुआ मैं
'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में
दरिया दूर नहीं और प्यासा रह सकता हूँ