दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
ये भी क्या कम है कि अब से रात भर बाक़ी हूँ मैं
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दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में
आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं
बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'
मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं