बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'
उम्मीद तो नहीं कि ये महँगाई ख़त्म हो
Habib Jalib
Anwar Masood
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Gulzar
Parveen Shakir
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Wasi Shah
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(960) Peoples Rate This
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
रुख़-ए-ज़ेबा इधर नहीं करता
अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत
यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
मुस्तरद हो गया जब तेरा क़ुबूला हुआ मैं
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
न कोई ज़ख़्म लगा है न कोई दाग़ पड़ा है