बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
ये ज़मज़मे जो किसी दर्द की दवा न हुए
सफ़र में गोश बर आवाज़ था हर इक ज़र्रा
खुला था सामने सहरा हमें सदा न हुए
नई हवा में महक है पुराने पत्तों की
जो ख़ाक हो गए पर शाख़ से जुदा न हुए
हवा के साथ कई अश्क से उड़े तो सही
किसी तो रेतीली मिट्टी का आब-ओ-दाना हुए
ग़ज़ल में थे बहुत आज़ादा-रू 'ज़फ़र' लेकिन
तलाज़ुमात की ज़ंजीर से रिहा न हुए
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