ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
कि ध्यान ही न रहा ग़म की बे-लिबासी का
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उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
यूँ तो किस चीज़ की कमी है
वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
ये हाल है तो बदन को बचाइए कब तक
देखो तो कुछ ज़ियाँ नहीं खोने के बावजूद
कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं