कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं
हम जिसे दश्त समझते हैं वो दरिया ही न हो
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कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
जिसे अब तक तलाश करता हूँ
एक दिन सुब्ह जो उट्ठें तो ये दुनिया ही न हो
लम्बी तान के सो जा और
विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
'ज़फ़र' फ़सानों कि दास्तानों में रह गए हैं
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो