इक लहर है कि मुझ में उछलने को है 'ज़फ़र'
इक लफ़्ज़ है कि मुझ से अदा होने वाला है
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अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है
एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
ख़ुशी मिली तो ये आलम था बद-हवासी का
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा