क्या ख़बर जिस का यहाँ इतना उड़ाते हैं मज़ाक़
ख़ुद हमें भी कभी इस रंग में ढलना पड़ जाए
Anwar Masood
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Jaun Eliya
Parveen Shakir
Faiz Ahmad Faiz
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बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'
दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
जैसी अब है ऐसी हालत में नहीं रह सकता
अपनी मर्ज़ी से भी हम ने काम कर डाले हैं कुछ
अब के इस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत