लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
'ज़फ़र' वाइज़ हूँ मैं और ख़िदमत-ए-इस्लाम करता हूँ
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ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
बाहर से चट्टान की तरह हूँ
नहीं कि दिल में हमेशा ख़ुशी बहुत आई
कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था
बदन का सारा लहू खिंच के आ गया रुख़ पर
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था
चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ
कैसी रुकी हुई थी रवानी मिरी तरफ़