खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
जहाँ पानी न मिले आज वहाँ मार मुझे
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रौ में आए तो वो ख़ुद गर्मी-ए-बाज़ार हुए
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
यूँ तो किस चीज़ की कमी है
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
आँखों में राख डाल के निकला हूँ सैर को
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
चलो इतनी तो आसानी रहेगी
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल