ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी
मिरे चारों तरफ़ तो ख़ूब अच्छा हो रहा है
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चूमने के लिए थाम रख्खूँ कोई दम वो हाथ
अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रही
दरिया-ए-तुंद-मौज को सहरा बताइए
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'