मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
साफ़ पहचान लिया जाता हूँ रोया हुआ मैं
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बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई
जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
अंदर का ज़हर-नाक अँधेरा ही था बहुत
ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'