न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
वगर्ना उस पे तबीअ'त मिरी बहुत आई
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वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
अगर इस खेल में अब वो भी शामिल होने वाला है
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
सिमटने की हवस क्या थी बिखरना किस लिए है
उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं
कुछ भी न उस की ज़ीनत-ओ-ज़ेबाई से हुआ