भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
वो ख़्वाब है तो यूँही देखने से गुज़रेगा
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जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
उठ और फिर से रवाना हो डर ज़ियादा नहीं
ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
बिखर बिखर गए अल्फ़ाज़ से अदा न हुए
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
भूल बैठा था मगर याद भी ख़ुद मैं ने किया
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को