टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
ये भी हो सकता है वो सामने बैठा ही न हो
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मैं डूबता जज़ीरा था मौजों की मार पर
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ
खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है
अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रही
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी