किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
तलवार ताक़ में है न घोड़ा है थान पर
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थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था
विदाअ' करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है