वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
क्या आतिशीं गुलाब खिला आसमान पर
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रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर
लर्ज़िश-ए-पर्दा-ए-इज़हार का मतलब क्या है
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ
मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
देखो तो कुछ ज़ियाँ नहीं खोने के बावजूद
लम्बी तान के सो जा और
दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
कुफ़्र से ये जो मुनव्वर मिरी पेशानी है