रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर
कुछ क़र्ज़ था अगर तो अदा भी हुआ हूँ मैं
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बात ऐसी भी कोई नहीं कि मोहब्बत बहुत ज़ियादा है
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
तन्हा रहने में भी कोई उज़्र नहीं है
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
अपने सोए हुए सूरज की ख़बर ले जा कर
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला